क्या कांग्रेस पार्टी राष्ट्रीय हित के साथ खड़ी है — या उसके खिलाफ?

क्या कांग्रेस पार्टी राष्ट्रीय हित के साथ खड़ी है

क्या कांग्रेस पार्टी राष्ट्रीय हित के साथ खड़ी है: पहलगाम में हुए आतंकी हमले ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। इस भयावह घटना में निर्दोष लोगों को केवल उनके धर्म के आधार पर मौत के घाट उतार दिया गया। इस तरह की त्रासदी के समय देश को एकजुटता और मजबूती दिखानी चाहिए थी, लेकिन कांग्रेस पार्टी के कई नेताओं के बयानों ने न केवल पीड़ितों की भावनाओं को ठेस पहुंचाई है, बल्कि देश की सुरक्षा नीति पर भी सवालिया निशान खड़े कर दिए हैं।

यदि आप उन मतदाताओं में शामिल हैं जो आज भी कांग्रेस पार्टी का समर्थन करते हैं, तो यह सोचने का समय है — क्या आप एक ऐसी पार्टी का समर्थन जारी रख सकते हैं, जो बार-बार ऐसे बयान देती है जो पाकिस्तान की बयानबाज़ी से मेल खाते हैं और राष्ट्रीय एकता को कमजोर करते हैं?

पीड़ितों की गवाही पर सवाल

महाराष्ट्र कांग्रेस नेता विजय वडेट्टीवार ने पीड़ितों के उन बयानों पर संदेह जताया जिनमें बताया गया कि आतंकियों ने पहले लोगों से कलमा पढ़वाया, और जो पढ़ नहीं पाए उन्हें गोली मार दी गई। वडेट्टीवार ने कहा, “आतंकी के पास इतना वक्त होता है क्या? कुछ लोग कहते हैं कि ऐसा हुआ ही नहीं। आतंकियों का कोई धर्म या जाति नहीं होता।”

इसी तरह कर्नाटक के मंत्री आर. बी. टिम्मापुर ने भी कहा कि यह व्यावहारिक नहीं है कि आतंकी गोली मारने से पहले धर्म पूछे।

लेकिन ये बयान उन प्रत्यक्षदर्शियों के अनुभवों को पूरी तरह खारिज करते हैं, जो अपने परिवारजनों को खो चुके हैं और जिनकी गवाही पुलिस रिकॉर्ड और मीडिया रिपोर्ट्स से प्रमाणित हो चुकी है।

क्या यह हमले का कारण ढूंढना है या आतंकी हमले को उचित ठहराना?

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर ने इस पूरे हमले को विभाजन के “अधूरे सवालों” से जोड़ दिया। उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि क्या आज के भारत में मुस्लिम खुद को “स्वीकार किया हुआ, सम्मानित और उत्सव के रूप में मनाया गया” महसूस करते हैं?

इस तरह की बयानबाज़ी का समय बहुत संवेदनशील है। जब देश शोक मना रहा है, उस वक्त ऐसे विमर्श आतंक के लिए तर्क गढ़ने जैसे प्रतीत होते हैं।

रॉबर्ट वाड्रा ने इस हमले को भाजपा सरकार की हिंदुत्व नीतियों से जोड़ दिया, जबकि कांग्रेस नेता सैफुद्दीन सोज़ ने पाकिस्तान की संलिप्तता से इनकार करने पर कहा कि “जब तक जांच पूरी नहीं हो जाती, हमें पाकिस्तान के इनकार को स्वीकार कर लेना चाहिए।”

शांति की बात — लेकिन किस कीमत पर?

कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने कहा कि “युद्ध की कोई जरूरत नहीं है।” बाद में उन्होंने स्पष्ट किया कि युद्ध अंतिम विकल्प होना चाहिए। लेकिन पहली टिप्पणी का समय इतना असंवेदनशील था कि इसने आम जनता में गुस्सा भड़का दिया।

जम्मू और कश्मीर कांग्रेस अध्यक्ष तारिक हमीद कर्रा ने भी कहा कि पाकिस्तान से “बातचीत के ज़रिये” मामले सुलझाए जाने चाहिए। आतंक के तुरंत बाद ऐसी बात कहना भारत के खिलाफ हिंसा को हल्के में लेने जैसा लगता है।

आधिकारिक असहमति — लेकिन कार्रवाई कहां है?

कांग्रेस पार्टी ने इन बयानों से खुद को आधिकारिक रूप से अलग बताया है, लेकिन अभी तक न किसी नेता को निलंबित किया गया है और न ही कोई कठोर सार्वजनिक फटकार दी गई है। भाजपा ने इस मौके का इस्तेमाल करते हुए कांग्रेस पर “पाकिस्तानी भाषा” बोलने का आरोप लगाया है।

ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो यह कोई नई बात नहीं है। 1965 के युद्ध के बाद जब हमारी सेना का पलड़ा भारी था, कांग्रेस ने ताशकंद समझौता करके पाकिस्तान को कब्जाई हुई ज़मीन लौटा दी। 1999 के करगिल युद्ध के दौरान भी कांग्रेस ने सरकार पर सवाल उठाए। पुलवामा और बालाकोट के बाद भी कांग्रेस ने सर्जिकल स्ट्राइक के प्रमाण मांगे थे।

कांग्रेस समर्थकों के लिए सवाल

अब सवाल कांग्रेस समर्थकों के सामने है। क्या आप ऐसी पार्टी के साथ खड़े रह सकते हैं जो हर बार देश की सुरक्षा नीति को सवालों के घेरे में लाती है? जब पीड़ितों की बातें झुठलाई जाती हैं, जब हमलावरों को धार्मिक रूप से तटस्थ बताया जाता है, और जब दुश्मन देश से संवाद की मांग होती है, तब यह केवल राजनीति नहीं रह जाती — यह देशभक्ति और विश्वास का मामला बन जाता है।

यह वक्त फैसला लेने का है। कांग्रेस पार्टी आज जो रास्ता अपना रही है, क्या वह भारत की संप्रभुता और सुरक्षा के साथ है, या उसके खिलाफ?

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