पजामा सलवार लीग 2025 फाइनल: जहाँ बल्ला न छुए, अंपायर भूत देखे, और भारत पर (ज़ाहिर है!) टेक्नोलॉजी खराब होने का इल्ज़ाम लगे!

पजामा सलवार लीग का ग्रैंड फिनाले – क्रिकेट के मैदान पर कॉमेडी शो!
जब क्रिकेट बना कॉमेडी: PSL 2025 का फिनाले बना अंपायरिंग और DRS ड्रामे का पिटारा!

कॉमेडी का ग्रैंड फिनाले –

फ्लडलाइटें ऐसी चमक रही थीं मानो खुद सूरज ज़मीन पर उतर आया हो, और जो दर्शक मैदान में नहीं थे, वे भी अपने घरों में बैठकर ऐसे चिल्ला रहे थे मानो स्टेडियम में ही हों! माहौल में तनाव था… खैर, ज़्यादातर तनाव तो इस बात का था कि बत्तियाँ जलती रहेंगी या नहीं, इस शानदार, जानदार, विश्व प्रसिद्ध (अपने ही मोहल्ले में) पजामा सलवार लीग – ओह गलती हो गई, पाकिस्तान सुपर लीग – (PSL) 2025 के ग्रैंड फिनाले में!

क्वेटा ग्लेडिएटर्स और लाहौर कलंदर्स के बीच हुए इस सांसें रोक देने वाले, कुर्सी (या शायद सोफे) से उछल पड़ने को मजबूर कर देने वाले मुकाबले में, शाहीन शाह अफरीदी की लाहौर लायंस… अरे नहीं, कलंदर्स… आखिरकार जीत ही गई। इस क्रिकेट के महाकुंभ में पिछले दस सालों में यह उनकी तीसरी ट्रॉफी थी। लेकिन असली ट्रॉफी, हमेशा की तरह, “हालात™” और “अंपायर की मेहरबानी™” को ही मिली, जैसा कि अक्सर इस लीग में होता है!

अंपायरिंग का ‘ऊँचा’ स्तर और कप्तान का गुस्सा

मैच का सबसे यादगार पल, जो “ये क्या था भाई?” टाइप की अंपायरिंग का एक जीता-जागता नमूना इस लीग में था, यह तब आया जब क्वेटा के कप्तान साहब, सऊद शकील, बड़ी बहादुरी से 3 रन बनाकर खेल रहे थे।

अफरीदी की एक आग उगलती (या शायद ठीक-ठाक रफ्तार वाली) लेग-साइड यॉर्कर पर शकील ने बल्ला घुमाया। गेंद, जिसका शायद बल्ले से कोई पुराना झगड़ा था और उसे छूने का बिल्कुल मन नहीं था, बल्ले से मीलों दूर (इतनी दूर कि चाँद से भी दिखाई दे जाए) निकल गई।

टीवी रिप्ले में भी यह ‘आसमान जितनी दूरी’ साफ-साफ नज़र आई। यहाँ तक कि कमेंटेटर माइक हेज़मैन साहब ने भी, भगवान उनकी पारखी नज़रों को सलामत रखे, इसे वाइड देने लायक गेंद करार दिया।

लेकिन पजामा सलवार लीग – क्षमा करें, मेरा मतलब था पाकिस्तान सुपर लीग – के मैदान पर मौजूद अंपायर साहब तो एक अलग ही दुनिया में फ़ैसले करते हैं, शायद उनके पास कोई छठी इंद्री है जो हवा में भी किनारा महसूस कर लेती है, या फिर उन्हें घर पर डिनर के लिए जल्दी पहुँचने की कोई खास जल्दी थी। उंगली उठी और शकील आउट!

शकील साहब, जिनका गुस्सा सातवें आसमान पर था (और होना भी चाहिए था), काफी देर तक अंपायर को घूर-घूरकर देखते रहे, शायद अपनी आँखों से ही रिप्ले का वीडियो उनकी आँखों में ट्रांसफर करने की कोशिश कर रहे थे।

हाय रे किस्मत! डीआरएस (DRS) – वो अमीरों वाली, फर्स्ट-वर्ल्ड देशों वाली डिसीजन रिव्यू सिस्टम – तो वहाँ था ही नहीं! बेचारे शकील के पास पवेलियन लौटने के सिवा कोई चारा न था, उनका क्रिकेट के न्याय (और शायद अच्छी आँखों वाली अंपायरिंग) पर से भरोसा उठ चुका था। हेज़मैन साहब ने बड़ी समझदारी से कहा, “वो बिल्कुल खुश नहीं दिख रहे,” मानो यह कोई रॉकेट साइंस हो जो किसी को समझ न आए!

DRS क्यों नहीं था पजामा सलवार लीग में? और भारत का ‘हाथ’

अब आप पूछेंगे कि इतने ‘सुपर’ पजामा सलवार लीग के फाइनल में यह टेक्नोलॉजी वाली बत्ती गुल क्यों थी? आह, यहीं तो कहानी, जो पहले ही दिन पुरानी बिरयानी से ज़्यादा गाढ़ी हो चुकी थी, और भी जम जाती है!

यह जो पजामा सलवार लीग है न – अरे रे, फिर वही गलती, पाकिस्तान सुपर लीग कहना था मुझे – 2025 वाली, जो पहले उन भारत-पाक के राजनीतिक तनावों (क्योंकि क्रिकेट टूर्नामेंट में थोड़ा राजनीतिक मसाला न हो तो मज़ा कैसे आए?) की वजह से बीच में ही रुक गया था, बड़ी शान से 18 मई को फिर से शुरू हुआ।

लेकिन, हॉक-आई (Hawk-Eye) कंपनी वाली डीआरएस टेक्नोलॉजी रहस्यमय तरीके से गायब हो गई। पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड (PCB) ने, अपनी पारदर्शिता का ‘शानदार’ प्रदर्शन करते हुए, इस पर कोई सरकारी बयान नहीं दिया।

लेकिन “सूत्रों” – वही भरोसेमंद, कानों-कान फुसफुसाए जाने वाले सूत्र – ने बताया कि हॉक-आई टीम, जिसमें – क्या कहने! – भारत के तकनीकी एक्सपर्ट भरे पड़े थे, ने पाकिस्तान लौटने से बड़ी विनम्रता से मना कर दिया था। लगता है उनके तकनीकी औज़ारों को अचानक वहाँ की बिजली सप्लाई से एलर्जी हो गई थी, या शायद उन्हें असली सुपर लीग देखने का ज़्यादा मन कर रहा था!

तो, इस महान पजामा सलवार लीग के आखिरी आठ मैच, जिसमें तीन प्लेऑफ और ग्रैंड फिनाले भी शामिल थे, ऐसी अंपायरिंग के साथ खेले गए जो आमतौर पर गली-मोहल्ले के मैचों में देखने को मिलती है।

इससे यह बात तो शीशे की तरह साफ हो गई, जैसा कि लेख में भी हल्के से इशारा किया गया है, कि “बिना भारत के पाकिस्तान क्रिकेट भी नहीं चल सकता।” या कम से कम, बिना भारतीय टेक सपोर्ट के वे बल्ले और गेंद के बीच का फासला तो कतई नहीं नाप सकते। इस पजामा सलवार लीग में “सुपर” का मतलब शायद “सुपर-निर्भरता” या “ऊपर-ऊपर से चमक” है।

फाइनल का नतीजा और ‘पजामा सलवार लीग’ की शान

ग्रैंड फिनाले में क्वेटा ग्लेडिएटर्स ने बड़ी हिम्मत दिखाते हुए 201/9 रन बनाए। जवाब में, लाहौर कलंदर्स ने, शायद अंपायरों की ‘समझदारी’ भरी मेहरबानी (या शायद सिकंदर रज़ा सच में इतने अच्छे खिलाड़ी हैं) की मदद से, आखिरी ओवर में यह लक्ष्य हासिल कर लिया।

एक और शानदार खिताब उनके नाम, और पजामा सलवार लीग – उफ़्फ़, फिर गलत बोल दिया, पाकिस्तान सुपर लीग – के लिए एक और “चलो, यह भी हो गया” वाला पल। इस लीग की यही तो खासियत है, हर कदम पर एक नया ‘रोमांच’!

पीसीबी की इस अनोखी लीग क्रिकेट ब्रांड के प्रति लगन की जितनी तारीफ की जाए कम है – जहाँ नियम तो ऐसे हैं जैसे रबर बैंड, टेक्नोलॉजी वैकल्पिक है (खासकर अगर वो पड़ोसियों पर निर्भर हो), और मनोरंजन हमेशा, बिना किसी कोशिश के, टॉप क्लास का होता है।

क्रिकेट को तो भूल ही जाइए; असली खेल तो यह देखना है कि वे कैसे इतने कम बजट में, बस दुआओं के सहारे, और रिप्ले में क्या दिख रहा है इसकी ज़रा भी परवाह किए बिना, एक “सुपर” लीग चलाने की कोशिश करते हैं!

सच में, यह पजामा सलवार लीग है: साख के लिए भिखारी, लेकिन अपनी अनोखी, अजीबोगरीब हकीकत के बादशाह! यहाँ हर मैच एक नया ड्रामा है, हर फैसला एक नई कहानी, और इस लीग का हर सीजन… बस पूछिए मत! दर्शकों को बस पॉपकॉर्न लेकर बैठना है और इस ‘विश्वस्तरीय’ कॉमेडी शो का मज़ा लेना है! उम्मीद है इस लीग के अगले सीजन में डीआरएस की जगह कबूतरों से फैसला करवाया जाएगा, ताकि ‘पारंपरिक’ तरीकों को बढ़ावा मिल सके!

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Sudhanshu Shekhar
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